जातीय गणना करा ली, आरक्षण पर बिल पास करा लिया, पर नौकरियां कहां से लाएंगे नीतीश

बिहार के जातीय जनगणना और आर्थिक सर्वे की जो रिपोर्ट विधानसभा में पेश की गई है, उसने सरकारी नौकरियों के आंकड़े को भी सामने रखा है। रिपोर्ट के मुताबिक राज्य की 15.5 फीसदी जनरल आबादी की सरकारी नौकरियों में 31 पर्सेंट हिस्सेदारी है।वहीं अत्यंत पिछड़ा वर्ग की महज 0.98 फीसदी है, जो सभी वर्गों के मुकाबले सबसे कम है। जबकि अत्यंत पिछड़ा की आबादी राज्य में 36 फीसदी है। यही नहीं 27 फीसदी की भी हिस्सेदारी 1.75 पर्सेंट ही है। यही वजह है कि सीएम नीतीश कुमार की सरकार ने सर्वे के बाद जातिगत आरक्षण को 50 से 65 फीसदी करने का प्रस्ताव पारित करा लिया है।यह प्रस्ताव समस्या का अंत नहीं है बल्कि इसे एक सिरा भर कह सकते हैं। इसकी वजह यह है कि आज सरकारी नौकरियां जिस तरह से कम हो रही हैं या फिर बिहार में सरकारी नौकरियों से रोजगार का जो आंकड़ा है, उसमें सभी की अपेक्षाओं को समाहित कर पाना आसान नहीं है। राज्य की 13.07 करोड़ की आबादी में महज 1.5 पर्सेंट यानी 20.5 लाख लोगों के पास ही सरकारी नौकरी है। ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि सरकारी नौकरी का ख्वाब सरकार कितने लोगों का पूरा कर पाएगी और कौन से वर्गों को इसमें समाहित कर सकेगी।फिलहाल बिहार सरकार के पास ऐसी कोई रोजगार नीति नहीं है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2025 के विधानसभा चुनाव तक 25 लाख नौकरियों का वादा जरूर कर रखा है। अब तक सरकार 1.22 लाख अध्यापक भर्ती कर चुकी है और इतने ही पदों पर और नौकरी निकाली है। डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव कहते हैं कि हम अपना वादा पूरा करने की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। इन वादों और इरादों के बीच कोई ऐसी नीति तो दिखती नहीं, जिसमें सभी वर्गों को समाहित करने का कोई तरीका निकल सके।

नीतीश कुमार जब पहली बार सत्ता में आए तो उन्होंने 2007 में सरकारी रोजगार को लेकर अभियान छेड़ा था। उनकी सरकार दावा करती है कि पिछले 16 सालों में 8 लाख सरकारी नौकरियां दी जा चुकी हैं। खुद नीतीश कुमार ने 1990 से 2005 के दौर की याद याद दिलाते हुए कहा था कि 15 सालों के लालू-राबड़ी राज में सिर्फ 95 हजार नौकरियां दी गई थीं। आंकड़ा पूरी कहानी कहता है और साफ है कि आरक्षण का दायरा बढ़ाना अपनी जगह है, लेकिन यह जिन सरकारी नौकरियों पर लागू होगा, यदि वही कम हैं तो फिर मर्ज की दवा कैसे होगी?

राज्य में निजी सेक्टर की नौकरियों का भी अभाव

सर्वे बताता है कि राज्य में सबसे ज्यादा 2.18 करोड़ लोग दिहाड़ी मजदूर या राजमिस्त्री जैसे कामों में लगे हैं। निजी सेक्टर के संगठित रोजगार में 15.9 लाख लोग लगे हैं, जबकि करीब 28 लाख लोग असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं। राज्य में अब भी खेती पर 1 करोड़ लोग निर्भर हैं, जबकि पैदावार काफी कम है। एक्सपर्ट्स मानते हैं कि खेती पर अत्यधिक निर्भरता और सरकारी नौकरी पर ही भरोसा करना रोजगार की चाह के लिए घातक है। ऐसे में यह जरूरी है कि रोजगार के अवसरों का सृजन प्राइवेट नौकरी के तौर पर हो या फिर लघु उद्योगों को बढ़ावा मिले।

OBC और EBC से आगे हैं अनुसूचित जाति के लोग

हालांकि पूरे सर्वे में यह आंकड़ा दिलचस्प है कि ओबीसी और ईबीसी से ज्यादा अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग सरकारी नौकरी में हैं। अनुसूचित जाति की सरकारी नौकरियों में 1.13 फीसदी और एसटी की 1.37 फीसदी हिस्सेदारी है। यह आंकड़ा भी बहुत छोटा है, लेकिन पिछड़ी जातियों की तुलना में थोड़ा अधिक है।

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