कथा
शिवपुराण की कथा के अनुसार दैत्यराज दंभ की कोई संतान नहीं थी। उसने संतान प्राप्ति के लिए भगवान विष्णु की कठोर तपस्या की थी। दैत्यराज के कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उससे वर मांगने को कहा। तब दंभ ने महापराक्रमी पुत्र का वर मांगा। विष्णु जी तथास्तु कहकर अंतर्धान हो गए। इसके बाद दंभ के यहां एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम शंखचूड़ पड़ा।
ब्रह्माजी ने दिया श्रीकृष्ण कवच
युवावस्था होने पर शंखचूड़ ने पुष्कर में ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए घोर तप किया। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव ने वर मांगने के लिए कहा, तो शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए। ब्रह्माजी ने तथास्तु कहकर उसे तीनों लोकों में मंगल करने वाला श्रीकृष्ण कवच दे दिया। इसके बाद ब्रह्राजी ने शंखचूड के तपस्या से प्रसन्न होकर उसे धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा देकर अंतर्धान हो गए। ब्रह्माजी की आज्ञा से तुलसी और शंखचूड का विवाह संपन्न हुआ।
शिवजी भी नहीं कर पाए वध
ब्रह्माजी से वरदान मिलने के बाद शंखचूड में अहंकार आ गया और उसने तीनों लोकों में अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया। शंखचूड़ से त्रस्त होकर देवताओं ने विष्णुजी से सहायता मांगी, लेकिन भगवान विष्णु ने खुद दंभ पुत्र का वरदान दे रखा था इसलिए विष्णुजी ने शंकर जी की आराधना की, जिसके बाद शिवजी ने देवताओं की रक्षा के लिए चल दिए, लेकिन श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पतिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे।
हड्डियों से शंख का जन्म हुआ
इसके बाद विष्णु जी ने ब्राह्मण रूप धारण कर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्णकवच दान में ले लिया और शंखचूड़ का रूप धारण कर तुलसी के शील का हरण कर लिया। इसके बाद भगवान शिव ने अपने विजय नामक त्रिशूल से शंखचूड का वध कर दिया। शंखचूड़ की हड्डियों से शंख का प्रादुर्भाव हुआ, जिस शंख का जल शंकर के अतिरिक्त समस्त देवताओं के लिए प्रशस्त माना जाता है।