अखिलेश का खेल बिगाड़ने पर अपने ही तुले, आठ महीने में चार साथी छूटे; समीकरणों पर कितना असर?

लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव का खेल सबसे ज्यादा वही बिगाड़ सकते हैं जो कुछ महीने पहले तक उनके साथ थे। पिछले आठ महीने में अखिलेश के चार महत्वपूर्ण साथी उनका साथ छोड़ चुके हैं।इनमें ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा), जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोकदल, संजय चौहान की जनवादी सोशलिस्ट पार्टी और पल्लवी पटेल की अपना दल (कमेरावादी) शामिल हैं। जहां चार साथी छूटे हैं वहीं अखिलेश को इस चुनाव में राहुल गांधी और कांग्रेस का साथ भी मिला है। लेकिन कई जानकारों का मानना है कि अलग-अलग क्षेत्रों और वर्गों के बीच मजबूत आधार वाले दलों-नेताओं के साथ छोड़ने से अखिलेश यादव द्वारा पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान बड़ी मेहनत से बनाए गए समीकरणों पर असर पड़ सकता है।

लोकसभा चुनाव के लिए सीट शेयरिंग फाइनल हो जाने के बाद राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख जयंत चौधरी ने अखिलेश यादव का साथ छोड़ एनडीए का दामन थाम लिया तो वेस्ट यूपी के सियासी समीकरणों पर इससे पड़ने वाले असर की समीक्षा होने लगी। कई राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि जयंत चौधरी के साथ छोड़ने से अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के सामने वेस्ट यूपी में एक बड़ा खाली स्थान पैदा हो गया है। राष्ट्रीय लोकदल को वेस्ट यूपी में जाट समुदाय का समर्थन मिलता रहा है। बागपत, हापुड़, अलीगढ़, सहारनपुर और मुजफ्फरनगर में जाट मतदाता बड़ी संख्या में हैं। वहीं स्थानीय सपा नेताओं का कहना है कि जयंत चौधरी के साथ छोड़ने से सपा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा! एक सपा नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि जयंत के सपा के साथ आने से सपा को जाट समुदाय का कुछ वोट जरूर मिला लेकिन सच्चाई ये है कि पिछले कुछ समय से जाट मतदाताओं की बड़ी संख्या भाजपा को ही वोट दे रही है। जयंत के एनडीए में जाने से वही वोट उनकी तरफ जा सकते हैं। जमीनी हकीकत यह है कि 2019 में सपा और बसपा से गठबंधन के बावजूद रालोद अपने गढ़ मुजफ्फरनगर और बागपत की सीटें नहीं बचा सकी थी। 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा से रालोद को 33 सीटें मिलीं लेकिन 2.9 प्रतिशत वोट शेयर के साथ वो आठ सीटैं ही जीत सकी थी। 19 सीटों पर रालोद दूसरे नंबर पर रही और 6 सीटें 10 हजार से कम वोटों से हारी।

पिछले दिनों राज्यसभा चुनाव के लिए तीन उम्मीदवारों के नामों का ऐलान होते ही समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रहे स्वामी प्रसाद मौर्य ने बगावत कर दी थी। बाद में उन्होंने राष्ट्रीय महासचिव के ओहदे, पार्टी की प्राथमिक सदस्यता और एमएलसी के पद से इस्तीफा दे दिया। स्वामी के बाद राज्यसभा चुनाव में सपा की सहयोगी पार्टी अपना दल (कमेरावादी) की पल्लवी पटेल ने भी तीखे तेवरों के साथ चेतावनी दी कि वह राज्यसभा चुनाव में सपा प्रत्याशी को वोट नहीं देंगी। हालांकि बाद में उन्होंने पीडीए के समर्थन का हवाला देते हुए सपा प्रत्याशी रामजी लाल सुमन के पक्ष में मतदान किया। इसके कुछ दिन बाद ही अपना दल कमेरावादी ने यूपी की तीन लोकसभा सीटों फूलपुर, मिर्जापुर और कौशांबी पर चुनाव लड़ने का निर्णय ले लिया। इसके बाद समाजवादी पार्टी और अपना दल (कमेरावादी) के बीच एक बार फिर संबंध तनावपूर्ण हो गए। फिर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में अखिलेश यादव ने खुद ही इसका ऐलान कर दिया कि समाजवादी पार्टी और अपना दल (कमेरावादी) के बीच अब कोई गठबंधन नहीं है।

हाल में जनवादी सोशलिस्ट पार्टी ने भी समाजवादी पार्टी से किनारा कर लिया। इस पार्टी के प्रमुख संजय चौहान ने यूपी की 27 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। इसके पहले 2022 चुनाव के तुरंत बाद सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख ओमप्रकाश राजभर से भी समाजवादी पार्टी का गठबंधन खत्म हो गया था। धर्म सिंह सैनी और दारा सिंह के नाम भी अखिलेश का साथ छोड़ने वाले नेताओं में हैं। जानकारों का कहना है कि इन नेताओं ने 2022 के विधानसभा चुनाव में ओबीसी मतदाताओं के बीच अखिलेश के पक्ष में माहौल बनाया था। अब जब उनका साथ छूट गया है, 2024 में अखिलेश के सामने सहयोगियों के जाने से खाली हुई जगह को भरने की चुनौती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *